हम जो जीते हैं… – कविता: मनोज शर्मा

कई दरवाज़े
बहुत देर से खुलते हैं
कई खिड़कियों पर
केवल ढलते सूरज की आती है
धूप…

कई पेड़
तेज़ हवाओं में भी
बने रहते हैं खामोश
उनके पत्ते
फड़फड़ाते नहीं..

यह कुछ-कुछ ऐसा है
कि हमने उम्र निकाल दी
न तो रोए, न ही हंसे
अंतस में पता नहीं कौन घास छीलता रहा..

और फिर एक दिन
जब अपने मोहल्ले के मोड़ पर होते हैं
हम
डूबता सूरज
अपने गोल सिंदूरी उजास में
दूर दिखाई पड़ता है
हवा हिलती है
और दरख्तों के पत्ते बजबजाने लगते हैं…

एक दिन अचानक
यह विरल आश्चर्य घटित होता है
अचानक अग्नि की तपिश से
होने लगता है
साक्षात्कार

जीवन में जैसे जल है
जैसे जल में तरलता
जैसे तरतलता में एक क्रिया है, बहना
वैसे ही यहां
कोई तो है……

मैं आंखें मूंदता हूं
तो तुम जगती हो…

प्रिय
चित्त गुलाबी हो रहा है
हवा, स्पर्श कर रही है
मुक्त हो रही हैं चिंताएं
दरवाज़े खुलते जा रहे हैं
देश,सांसें,समग्र परिवेश बोल रहा है
और टपक रहे हैं स्नेह-कण
बूंद-बूंद
यहां नशीला संगीत है
उम्र के पार जाने की है लालसा
बोलती-बतियाती
हंस रहा हूं मैं अंदर से
और मेरी आंखों से लगातार
टपक रहे हैं
आंसू।

– मनोज शर्मा
प्रतिरोध की कविता के जाने-माने कवि।
एक्टिविस्ट पत्रकार – अनुवादक – कवि – साहित्यकार।
इनके काव्य संग्रह हैं, यथार्थ के घेरे में, यकीन मानो मैं आऊंगा, बीता लौटता है और ऐसे समय में।
उद्भाव ना पल प्रतिपल आदि के कविता विशेषांक आदि में संपादकीय सहयोग।
इनकी कविताओं का अनुवाद डोंगरी पंजाबी मराठी अंग्रेजी आदि में।
संस्कृति मंच की स्थापना जम्मू में।
संप्रति नाबार्ड में उच्च पोस्ट पर।

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